" माँ " एक रिश्ता नहीं एक एहसास
' माँ ' एक रिश्ता नहीं एक एहसास है
भगवान मान लो या खुदा,
खुद वह मां के रूप में हमारे आस-पास है
इस एक शब्द में पूरे जीवन का सार समाया है
जब भी रहा है दिल बेचैन मेरा,
सुकून इसके आंचल तले ही पाया है।
पलकें भीग जाती हैं पल में,
' मां ' को जब भी याद किया है तन्हाई में,
जब भी पाया है खुद को मुश्किलों से घिरा,
साथ दिखी है वह मुझे मेरी परछाई में।
न जाने कौन सी मिट्टी से
' मां ' को बनाया है ऊपर वाले ने,
कि वह कभी थकती नहीं, कभी रुकती नहीं,
उसे अपने बच्चों से कभी शिकायत नहीं होती...
आंसुओं का सैलाब है भीतर,
पर आंखों से वह कभी नहीं रोती।
उसे टुकड़ा-टुकड़ा होकर भी,
फिर से जुड़ना आता है,
अपने लिए कुछ किसी से नहीं उससे मांगा जाता है।
कितना भी लिखो इसके लिए कम है,
सच है ये कि ' मां ' तू है, तो हम हैं।
बड़े खुशनसीब हैं वो जिन के सिर पर मां का साया है
और बड़े बदनसीब हैं वो जिन्होंने अपनी मां को ठुकराया है
मुझे दौलत नहीं चाहिए, शोहरत नहीं चाहिए,
नहीं चाहिए मुझे वरदान कोई
मुझे चाहिए ' मां ' के चेहरे पे सुकून के दो पल
और उसके होठों पे मुस्कान।
करना चाहूंगा मैं कुछ ऐसा कि
मेरे नाम से मिले मेरी मां को पहचान।
No comments:
Post a Comment